Media Debates का इतना तो असर हम सब पर हुआ है कि अब संवाद नहीं होते बहस होती है।

जनगण में संवाद खत्म होना चिंता का विषय है इससे विचारों कि गतिशीलता बाधित हुई है।


याद रखिये नाई की दुकान, और पड़ोसी का मकान, गली कि खुली चौकी और पाटो का चौगान इन सब जगह सामाजिक व राजनीतिक वार्तालापों से उपजी बहस से परहेज करें।

कारण यह कि सभ्य तरीके से होने वाला संवाद भी वहाँ बहस का रूप ले लेता है चर्चा शुरू होती है गरीबी की रेखा पर और बहस हो जाती रेखा की गरीबी पर क्योंकि एक विचारक को 10 विचारकों के विचार एकसाथ मिलते हैं जो सभी भिन्न है व उनके प्रतिउत्तर देने के लिए समय तक नहीं मिलता की दूसरा प्रश्न दाग़ दिया जाता है आपकी तरफ, कोई भी विचारक एक विषय कि जानकारी ही रखेगा वो भी सीमित, जबकि 10 विचारकों के विचार आपसे अलग हैं और वो अपने विषय का ज्ञान रखते हैं जबकि उन विषयों पर आपके पास सामान्य ज्ञान है जिससे किसी भी विचारक को तर्क-कुतर्क कर उलझाया जा सकता है उदाहरण के रूप आप टेलीविजन की गरमागरम बहस देख सकते हो जिसमे कई बार माइक तक बन्द करना पड़ जाता या आवाज को दबाया जाता है व बोलने का मौका दूसरे से छीनने की कोशिश होती है हमारे व्यवहार में मीडिया की उस बहस का बहुत प्रभाव पड़ा है उस प्रभाव ने संवाद को लगभग खत्म कर अनेच्छिक व घटिया स्तर की बहस को जन्म दे दिया है।

भीड़ में संवाद के साथ जो अनचाही बहस हमारा स्वागत करती है वो आपसी मनमुटाव की जड़ है तथा इससे व्यवहार में नम्रता खत्म हो जाती है और एक अनचाही सी ख़ूनस पैदा होती है जबकि संवाद से घनिष्ठता बढ़नी चाइए व विचारों और तथ्यों में गुणवत्ता  प्रचुर होनी चाहिए।

अपने आलोचक व संवाद कर्ता के प्रति मन मे सम्मान व आदर का भाव होना चाहिए व भाषा मे नम्रता और सहानुभूति ताकि संवाद बहस में न बदले और सम्बंध हर संवाद के बाद मधुर होते जाएं जिससे नव विचारो का सृजन होता रहे व समाज गतिशीलता के मार्ग पर अग्रसर हो सके।

- किशन कुमार जोशी (बीकानेर, राजस्थान )

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