महिला दिवस पर वास्तविकता से आत्मसात...!


नमस्कार महिला दिवस पर तमाम अच्छी पोस्ट आपने पढ़ी व लिखी होगी लगभग सभी ने महिलाओं के सम्मान का दावा किया होगा लेकिन महिलाओं के सम्मान का दावा करने वाले आधे से ज्यादा लोग आज भी एक बेहूदगी से भरी सभ्यता में जी रहे हैं जहाँ महिलाओं को महिला होने कि सजा मिलती है जीवन मे कंही न कंही महिलाओं ने इसे जरूर महसूस किया होगा कि वो आखिर लड़की क्यों है लड़का क्यों नहीं या लड़के कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं..?


आज भी जब हम आधुनिकता का ढोल पीटते हैं तब सामाजिक ताने बाने में रूप- रंग के भेदभाव व आर्थिक स्वरूप से महिला पर शोषण और जुल्म जारी है, आज महिला सशक्तीकरण के नाम पर कुछ योजनाओं का शुरू होना आधुनिकता हो गया जबकि सच यह है कि ग्रामीण इलाके आज भी प्रगतिशील नहीं है यहाँ महिलाएं आज भी वही जीवन जी रही है जो समाज ने उन्हें दिया।


कहाँ है ? महिलाओं कि स्वतंत्रता और सम्मान ? 


मुझे तो दिखाई नहीं देता किस समाज की बैठक व आमसभा में महिलाओं कि राय ली जाती है या उसे अधिकार दिया जाता है कि आप अपने विचार प्रस्तुत करें वर्तमान में महिला खुल कर अपनी विचारधारा भी तय नहीं कर पाती न सामाजिक दबाव में उसे प्रकट कर सकती है देश मे कुछ पदों पर महिलाओं को सुनिश्चित करना सम्पूर्ण महिलाओं के लिए हितार्थ मुझ से तो कहा नही जाता हाल यह कि इस सड़े हुए पुरुषवादी समाज मे महिलाओं कि वास्तविक स्थिति उजागर ही नही हो पाती मैं ख़ासकर उन महिलाओं कि बात कर रहा हूँ जो कम पढ़ी लिखी हैं व ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। 


लगभग सभी मेरे आसपास के क्षेत्रो में मैने देखा है कि महिलाओं को आज भी केवल घर के चूल्हे चौखट तक ही सीमित किया गया है अधिकांश शहरों में भी यही हाल है मैं नहीं लिखना चाहता क्योकिं मुझे पता है कि ज्यादातर लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन इस दिखावे व धौंस वाद से भरे पितृसत्तात्मक समाज के असली चहरे को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता जो दावा तो नारी का देवी से करता है लेकिन हक इंसान होने का भी नहीं दे सकता।


आप अपने आस पास के सच्चे जमीनी हालात देखिए आपको कंही से भी लगता हैं क्या कि हम एक प्रगतिशील समाज मे हैं जहाँ महिलाएं व पुरूष अलग न होकर एक हैं दोनो को एक ही सामाजिक महत्व दिया हुआ है सोच क्या रहे हैं.. जबाव है नहीं।


आज कुछेक महिलाओं के पास बोलने कि आजादी है वो भी उन्होंने खुद हासिल की क्योंकि या तो यह महिलाएं आर्थिक स्थिति से सुदृढ़ है या कोई पद उनके पास है बाकी कि अधिकांश महिलाएं अपने लिए विचार तक नहीं कर पाती जो चल रहा है चलने दो संस्कृति व धर्म के नाम पर महिलाओं पर ढेर सारे बंधन उनपे लाद दिए गए इसलिए महिलाएं इसी को सच्चा जीवन व स्वतंत्रता मान शोषण को ढो रहीं हैं, उनमें कल्पना करने की क्षमता भी यह आधुनिकता कि चादर ओढा समाज लम्बे वक्त से छिनता आ रहा है। 


एक परम्परा जिसे दहेज कहते हैं इसके नाम पर जो मांगे थी या है उसने महिलाओं कि अंतर्दशा को सबसे ज्यादा खोखला किया महिलाओं का पूरा जीवन ही दहेज के कारण व उसके परिणाम स्वरूप ही था या आज भी हैं।


कुछेक लोग यह सब इसलिए लिख रहैं है क्योकिं यह महत्वपूर्ण हैं इनपर सार्वजनिक रूप से चिंतन होना चाहिए खासकर खुद महिलाओं द्वारा अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता, के बारे में उन्हें ख़ुद ही अपने हिस्से का हक समाज से लेना होगा।


मुझे जो दिखता है उन्हीं विचारों की उथलपुथल को न्यूज सोशल साइट, व्हाट्सएप स्टेटस, फ़ेसबुक, ब्लॉग पर उड़ेल देता हूँ क्योंकि समाज को मैं अकेला परिवर्तित नहीं कर सकता अगर मैंने कोशिश भी की तो खुद को आख़िरत समाज जैसा ही बना लूंगा क्योंकि मैं भी इसी घृणित समाज का हिस्सा हूँ।

मैं गहरी उम्मीद करता हूँ कि आने वाला वक्त समतामूलक समाज की स्थापना करेगा जिसमे महिलाओं को पूर्ण वास्तविक व जमीनी स्वतंत्रता मिलेगी जिसने महिला व पुरुष में भेदभाव नहीं होगा ऐसे समाज के निर्माण कि पूरी जिम्मेदारी हम जैसे युवाओं कि है वो नए समाज मे रूढ़ियों कि तरह लिंगात्मक भेदभाव न करें जिसमें सबको आर्थिक, व सामाजिक हक औऱ न्याय प्राप्त हो। सभ्य समाज कि कल्पनाओं के साथ आप सभी पाठकों को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले दिवस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस कि बधाई।


- किशन कुमार जोशी 

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