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मैं कुछ पसन्द के दार्शनिक विचारकों को पढ़ने में नहीं चूकता चाहे कुछ हद तक मैं उनसे सहमत भी न हो सकु जैसे भगतसिंह, मार्क्स, सांकृत्यायन, ओशो, गाँधी, भारत तो खैर भंडार है लेकिन इस भंडार से बाहर कि सभ्यता भी बढ़ी ही रोचक हैं बात राजनीति के पहले चरण कि है जहाँ वो नवपल्वित हो रही थी।
एथेंस में सुकरात का मुकदमा चल रहा था और लोगों को ही फैसला लेना था क्योंकि वो कबीली जीवन कि छाप पर ही जी रहे थे आरोप था कि सुकरात अपनी शिक्षाओं से युवाओं को पथभ्रष्ट कर रहे हैं जैसे आज सत्ता के बारे में बोलते ही देशद्रोही कहते हैं ठीक उसी प्रकार ये वही शिक्षाएं हैं जिन्हें सैकड़ों सालों से पूरी दुनिया किताब छाप-छापकर पढ़ती रही है उस दौर में यही शिक्षाएं बड़ी बुरी लग रही थीं क्योंकि एथेंस में लोकतंत्र था तो सज़ा के लिए मतदान हुआ सुकरात 220 के मुकाबले 281 मतों से दोषी करार दिया गया तो बहुमत को देखते हुए मौत कि सजा हुई।
सुकरात को ज़हर पिलाये जाने से पहले जब क्रीटो ने सुकरात को संसार के जनमत की परवाह करने की सलाह दी तो सुकरात ने उसे एक भीड़ की संज्ञा देते हुए कहा कि "भीड़ न तो व्यक्ति का उपकार कर सकती है,न अपकार" हालांकि वो यह कथन लोकतंत्र के विरोध में बोलते हैं लेकिन यह वाक्य आज शाश्वत बना हुआ है भारत में मोबलीचिंग, सोशल मीडिया ट्रोल्स, समर्थन रैलियाँ, इसके उदाहरण हैं जो आज भी खुद से सब कुछ तय करते हैं।
भारत में भी आज एथेंस कि भाँति अपने विचारों को थोड़ा सा विस्तार देते ही राजनीति से बौराई, गुस्से से उमड़ी भीड़ जान लेने पर उतारू हो जाती है, राजनीतिक इतिहास को अगर पढेंगे तो खुद को बहुत क़रीब पाएंगे।
वैसे सुकरात ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा था जैसे यहाँ भारत मे बुद्ध थे पर उनके शिष्यों ने उनपर बहुत लेख लिखे उन्हीं के आधार पर हमारे सामने सुकरात व बुद्ध का महान व्यक्तित्व उभरता है जिससे हम आज तुलनात्मक अध्ययन भी कर सकते हैं मृत्युदंड के पूर्व सुकरात की बहस, दण्ड के बाद मित्रों के हार्दिक अनुरोध के बाद भी जेल से भागने से इनकार और फिर साहस के साथ विष का प्याला पीते हुए शांतचित्त से मृत्यु का वरण, सब कुछ अनोखा है।
शायद हमारे देश के क्रांतिकारी भी उनसे प्रेरित हुए होंगे अगर आप भगतसिंह को पढ़ते हैं तो यह एक जैसा ही प्रतीत होता है जैसे सुकरात अंत समय जेल में भी अपने शिष्यों को सहज प्रश्नोत्तर के माध्यम से जीवन के गूढ़ रहस्य समझाते है, और मृत्यु से अवगत करवाते हैं जैसे ओशो को उन्होंने पहले ही अपने अंदर उतारा हो सुकरात ऐसे दार्शनिक थे जो आत्मा परमात्मा में भारतीय सभ्यता के काफ़ी नजदीक लगते हैं लेकिन उन पर आरोप भी था कि वह मान्य देवताओं की उपेक्षा करते हैं।
सुकरात जहर पीते वक्त बातचीत के दौरान बहुत पहले कह गए हैं कि "भीड़ न किसी व्यक्ति को ज्ञानी बना सकती है और न ही मूर्ख, भीड़ तो मनमाने ढंग से कार्य करती है जो उसे अच्छा लगता है", भारत मे भी यही भीड़ आज देश को बर्बाद किये जा रही है जिसने कभी सुकरात का अंत किया था। यहाँ भीड़ का आशय विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से हावी हुए अंध समर्थकों से हैं जो सविंधान कि परवाह करते हैं न इंसानियत की बस वो एक झूठ पर दुनिया पलट देने को उतारू हैं वो लोकतंत्र में रहकर अलोकतांत्रिक बनते जा रहें हैं।
"जब तक दार्शनिक शासक नहीं होंगे और सत्ता की राजनीति से दूर रहेंगे, जनता हमेशा जाहिल, झूठे और मक्कार भाषणवीरों द्वारा छली जाती रहेगी.. - सुकरात"
- किशन कुमार जोशी
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