सार्स-सीओवी-2 वायरस के खिलाफ़ टीके निर्माण में इतना समय क्यों लग रहा है.? जानिए इस लेख से विस्तारपूर्वक।

हम सब लोग जिन दवाइयों का प्रयोग हमेशा करते आ रहे हैं , लेकिन नहीं जानते कि इन दवाइयों के विकास में संसार के न जाने कितने ही वैज्ञानिकों ने रात-दिन एक किया है। हममें से अधिकांश लोग ( डॉक्टर और रोगी दोनों ) विज्ञान के उपभोक्ता हैं , विज्ञानजीवी नहीं है । इसलिए हमें विज्ञान की हर गतिविधि सुस्त और धीमी लगती है, यह स्वाभाविक है।
दा स्क्रॉल और Covid19 वैक्सीन के सम्बंध में कई लेख पढ़ने के बाद लिखा यह लेख आपकी जानकारी बढ़ाने के लिए लिखा गया है इस लेख का मूल केंद्र covid 19 टिका निर्माण हैं व सोर्स स्कन्द हैं।

- किशन कुमार जोशी


यह कोरोना-वायरस सार्स-सीओवी 2 एक आरएनए-विषाणु है या इसे वायरस समझे, इसका पूरा जेनेटिक सीक्वेंस चीनी वैज्ञानिक दुनिया के साथ साझा कर चुके हैं। यह काम जनवरी 2020 में हुआ। इसी समय चीन के बाहर मेलबर्न , ऑस्ट्रेलिया के डोहर्टी संस्थान में पहली बार इस वायरस को प्रयोगशाला में इसका (उगाया गया )जाँच किया गया कि आखिर है यह है क्या  ( ध्यान रहे कि किसी भी कीटाणु : जीवाणु-विषाणु-फफूँद को प्रयोगशाला में उगाना जिसे कल्चर कहते हैं , उसे समझने और उसके खिलाफ़ टीका विकसित करने के लिए बहुत आवश्यक है। ) इसके बाद दुनिया-भर की उन्नत प्रयोगशालाओं में इस विषाणु के खिलाफ़ टीका बनाने की कोशिशें तेज़ हो गयीं।

फिर वैज्ञानिकों ने इस वायरस की प्रकृति और गुणों को समझना तेज़ किया। आपको बता दूं कि आम तौर पर किसी टीके के निर्माण में दो-से-पाँच वर्षों का समय लगता ही है। पिछले टीकों के विकास-क्रम को पढ़कर इसे जाना जा सकता है। आप भी गूगल पर अन्य टिके कैसे और कितने समय मे बने उसके बारे पढ़े वैसे टीका विकसित करना किसी एक देश या किसी एक प्रयोगशाला का काम नहीं है। इसके लिए विश्वभर के विशेषज्ञों को जुटना पड़ता है , मेहनत करनी पड़ती है। इस मेहनतकश काम में वायरस से किसी अन्य जानवर को संक्रमित करना पड़ता है यह जानवर इस वायरस का एनिमल-मॉडल कहलाता है।

जिन टीकों के विकास पर काम किया जाता है , सबसे पहले उनकी सुरक्षा आँकी जाती है। किसी भी नयी दवा का सुरक्षित होना असरदार होने से पहले ज़रूरी है। लोगों को ऐसी दवा नहीं दी जा सकती , जिसके बहुत से प्रतिकूल प्रभाव हों। फिर यह देखना होता है कि सम्भावित टीका / टीके मनुष्य के प्रतिरक्षा-तन्त्र को सही तरीक़े से चैलेन्ज करें। एनिमल-मॉडल में इस दौरान टीकों के अनेक प्रयोग किये जाते हैं। यह टीकों की प्रीक्लीनिकल टेस्टिंग का चरण होता है।

फिर जो टीके सुरक्षित और सफल पाये जाते हैं , उन्हें लेकर ह्यूमन ट्रायल किये जाते हैं। जब कोई टीका /  टीके सुरक्षित व सफल पाये जाते हैं , तब उनके प्रयोग के लिए वैश्विक और स्थानीय सरकारों से अनुमति लेनी पड़ती है। फिर यह भी देखना पड़ता है कि विकसित किया गया टीका किफ़ायती हो ताकि उससे ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हो सकें।

टीकों के विकास के लिए वायरस का ढेर सारा कल्चर आवश्यक होता है। सही एनिमल-मॉडल का चुनाव ही महत्त्वपूर्ण होता है। किसी भी जानवर का इस्तेमाल टीके के विकास के लिए यों ही नहीं किया जा सकता। अच्छी बात यह है कि आज के इस कोरोना-वायरस का आनुवंशिक गुण 80-90 % पिछले वायरस सार्स 1 से मिलती जुलती है , जिसपर वैज्ञानिक शोध करते रहे हैं। सार्स का जन्तु -मॉडल फेरेट नामक जीव है , उसका भी प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होता रहा है।

अब इतने सब के बाद यह भी समस्या है कि आज के इस नए कोरोना- वायरस ने कंही अपना अलग उत्परिवर्ती यानी भिन्न रूप ले लिया तो। यह पहले से ही हम-मनुष्यों में प्रचलित वायरस नहीं है। चमगादड़-से किसी अन्य जीव ( शायद पैंगोलिन ) से होता हुआ यह मनुष्यों में आया है। पहले यह भी बात थी कि इसका मनुष्य-से-मनुष्य में प्रसार नहीं होता पाया गया था। लेकिन फिर बाद में यह मनुष्य-से-मनुष्य में फैलने लगा। अगर यह आगे और बदलने लगा और बदलता गया तब क्या होगा डर यह है इसके प्रकार लगातार बदल रहे हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों की जनसंख्या भिन्न है , जलवायु भी। वहाँ रहने वाले लोगों की आनुवंशिकी भी अलग-अलग है। पिछले दूसरे कोरोना-विषाणुओं का संक्रमण भी इस नये वायरस के प्रति लोगों के शरीर का प्रतिरोध तय कर सकता है। ऐसे में यह भी ज़रूरी नहीं कि समूची दुनिया में फ़ैल चुका यह वायरस अलग-अलग स्ट्रेनों(तनाव व रूप )में विकसित हो सकता है।  ( यह दो स्ट्रेनों मे पहले ही बँट चुका है। )

नित्य बदल रहे पशुओं से मानव में आये इस नए विषाणु के खिलाफ़ टीका बनाना सरल काम नहीं है , कदाचित् आप समझ रहे होंगे। हमारे पास पिछले कोरोना-विषाणुओं के सबक हैं , लेकिन वर्तमान नयी चुनौती से पुराने सबकों के सहारे पूरी तरह से नहीं लड़ा जा सकता। साल-से-डेढ़ साल में वैक्सीन-निर्माण का दावा विलम्बित नहीं है , बहुत शीघ्र है। यानी साल डेढ़ साल कोई लम्बा वक्त नहीं है विज्ञान की दृष्टि से यह बहुत कम समय हैं। यह शीघ्रता भी बहुत हद तक इसलिए सम्भव हो पायी है, क्योंकि वैज्ञानिक ( पिछले गम्भीर कोरोना-संक्रमणों ) सार्स व मर्स को काफ़ी हद तक जानते हैं।
उम्मीद है आपको समझ आ गया होगा।


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